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Surdas Ke Pad Class 10 Pdf / सूरदास के पद कक्षा 10 Pdf

नमस्कार मित्रों, इस पोस्ट में हम आपको Surdas Ke Pad Class 10 Pdf देने जा रहे हैं, आप नीचे की लिंक से Surdas Ke Pad Class 10 Pdf Download कर सकते हैं और आप यहां से सूरदास का साहित्यिक परिचय PDF भी पढ़ सकते हैं।

 

 

 

Surdas Ke Pad Class 10 Pdf / सूरदास के पद कक्षा 10 पीडीऍफ़ 

 

 

 

 

Surdas Ke Pad Class 10 Pdf
सूरदास पाठ के प्रश्न उत्तर Class 10 pdf Download

 

 

 

Surdas Ke Pad Class 10 Pdf
Surdas Ke Pad Class 10 Pdf Download

 

 

 

 

 

 

 

 

1- ऊधौ मन न भये दस बीस।। एक हुतौ सो गयौ स्याम सँग, को अवराधै ईस ॥

इंद्री सिथिल भई केसव बिनु, ज्यौं देही बिनु सीस। आसा लागि रहति तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस ॥

तुम तौ सखा स्याम सुन्दर के, सकल जोग के ईस।। सूर हमारै नंदनंदन बिनु, और नहीं जगदीस ।।

 

 

 

अर्थ-

सूरदास जी अपनी वाणी में कहते है कि गोपियाँ व्यंग करना बंद करके अपने मन की दशा का वर्णन करती हुई कहती है कि हे उद्धव हमारे मन तो एक ही है, दस बीस तो नहीं है, एक ही मन था, वह भी श्याम के साथ ही चला गया।

 

 

 

अब हम किस मन से ईश्वर की आराधना करे? इन्द्रियां सिथिल पड़ गई है और यह शरीर तो मानो बिना सिर का हो गया है। बस उनके दर्शन की थोड़ी सी आशा भी हमे करोडो वर्ष तक जीवित रखेगी।

 

 

 

तुम तो कान्हा के सखा और योग के पूर्ण ज्ञाता हो, तुम्हारा उद्धार तो बिना कृष्ण के योग के सहारे हो जायेगा लेकिन हमारा तो नंद कुमार के बिना कोई ईश्वर नहीं है।

 

 

 

 

2- उध्दव,निरगुन कौन देसको वासी। मधुकर कहि समुझाई सौंह दै, बूझतिं सांचि न हांसी।।

को है जनक, कौन है जननि, कौन नारि कौन दासी। कैसे बरन भेष है कैसो,किहिं रस मैं अभिलाषी।।

पावैगो पुनि कियौ आपनो, जो रे करेगौ गांसी। सुनत मौन ह्वै रह्यौ बावरो,सूर सबै मति नासी।।

 

 

 

अर्थ-

कृष्ण का संदेश लेकर जब उद्धव गोपियों के पास गए तब उनसे गोपियां पूछती है, उस समय का वर्णन सूरदास करते हुए कहते है – कि गोपियां उद्धव जी से कहती है या पूछती है कि तुम्हारा यह निर्गुण किस देश का रहने वाला है? सच में सौगंध देकर पूछती हूँ।

 

 

 

यह हंसने की बात नहीं है। इसके माता-पिता, नारी दासी आखिर कौन है। इनका रंग रूप और भेष किस प्रकार का है। किस रस में उनकी रूचि है?

 

 

 

 

यदि हमने उनसे छल किया तो फिर तुम पाप और दंड के भागी होंगे। सूरदास जी कहते है कि गोपियों के इस तर्क के आगे उद्धव जैसे योग ज्ञाता की बुद्धि एकदम कुंद हो गयी और चुप हो गए।

 

 

 

 

 

3- बूझत स्याम कौन तू गोरी। कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी॥

काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी। सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी॥

तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी। सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी॥

 

 

 

 

अर्थ-

इस पद में श्री कृष्ण राधा से पूछते है, हे गौरी! तुम कौन हो? कहां रहती हो? किसकी पुत्री हो? हमने पहले तुम्हे कभी इन गलियों में नहीं देखा। तुम हमारे इस ब्रज में क्यों चली आयी।

 

 

 

 

अपने घर के ही आंगन में खेलती रहती। इतना सुनते ही राधा बोली, मैं सुना करती थी, नंद का लड़का सबका माखन चुरा लेता है। कृष्ण बोले, हम तुम्हारा क्या चुरा लेंगे?

 

 

 

 

अच्छा चलो हम लोग मिल जुलकर खेलते है। सूरदास जी कहते है कि इस प्रकार रसिया कृष्ण ने बात बनाते हुए भोली-भाली राधा को भरमा दिया।

 

 

 

 

4- मैया कबहुं बढ़ैगी चोटी। किती बेर मोहि दूध पियत भइ यह अजहूं है छोटी॥

तू जो कहति बल की बेनी ज्यों ह्वै है लांबी मोटी। काढ़त गुहत न्हवावत जैहै नागिन-सी भुई लोटी॥

काचो दूध पियावति पचि पचि देति न माखन रोटी। सूरदास त्रिभुवन मनमोहन हरि हलधर की जोटी॥

 

 

 

अर्थ-

सूरदास जी कहते है कि अपनी बाल अवस्था में श्रीकृष्ण जी दूध पीने में बहुत आना कानी करते थे। तब एक दिन माता यशोदा ने उन्हें प्रलोभन दिया – कान्हा तुम रोज कच्चा दूध पिया करो, इससे तेरी चोटी दाऊ जैसी मोटी और लंबी हो जाएगी।

 

 

 

 

इस तरह से मैया के कहने पर कान्हा दूध पीने लगे, कुछ दिन समय बीतने पर बोले कान्हा – मैया यह मेरी चोटी कब बढ़ेगी? दूध पीते हुए मुझे कितना समय हो गया है।

 

 

 

 

लेकिन वह पहले की भांति अभी तक छोटी है, तू तो कहती थी कि दूध पीने से तेरी चोटी दाऊ की चोटी की भांति लंबी और मोटी हो जाएगी शायद इसलिए तू मुझे नित्य नहलाकर बालो में कंघी करते हुए उसे सवारकर चोटी गुथती है।

 

 

 

 

जिससे चोटी नागिन की तरह बढ़कर लंबी और मोटी हो जाय कच्चा दूध भी इसलिए पिलाती है इस चोटी के कारण ही तू मुझे माखन और रोटी भी नहीं देती है। इतना कहते हुए श्री कृष्ण रूठ जाते है। सूरदास जी कहते है कि तीनो लोको में श्री कृष्ण और बलराम की यह मनोहर जोड़ी सुख पहुंचाती है।

 

 

 

 

 

5- मुखहिं बजावत बेनु धनि यह बृंदावन की रेनु। नंदकिसोर चरावत गैयां मुखहिं बजावत बेनु॥

मनमोहन को ध्यान धरै जिय अति सुख पावत चैन। चलत कहां मन बस पुरातन जहां कछु लेन न देनु॥

इहां रहहु जहं जूठन पावहु ब्रज बासिनि के ऐनु। सूरदास ह्यां की सरवरि नहिं कल्पबृच्छ सुरधेनु।।

 

 

 

अर्थ-

सूरदास जी कहते है कि ब्रज की धूल बहुत ही धन्य है, जहां नंद पुत्र श्री कृष्ण गायो को चराते समय अपने अधरों पर बांसुरी बजाते है। इस भूमि पर श्याम के स्मरण मात्र से मन में परम शांति का अनुभव होता है।

 

 

 

 

मन प्रभावित करते हुए सूरदास जी कहते है कि हे मन! तू क्यों इधर-उधर भटक रहा है। ब्रज में व्यवहारिकता से परे रहने पर सुख की प्राप्ति होती है।

 

 

 

 

यहां किसी का भी किसी के साथ कोई लेना देना नहीं है। सब तो ईश्वर के प्रति ध्यान में मग्न हो रहे है। ब्रज में रहकर ब्रज वासियो के जूठे बर्तन से अगर कुछ प्राप्त हो जाय तो ग्रहण करने से ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है। ब्रज भूमि की समानता कामधेनु भी नहीं कर सकती है।

 

 

 

 

6- मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो,

भोर भयो गैयन के पाछे, मधुवन मोहिं पठायो। चार पहर बंसीबट भटक्यो, साँझ परे घर आयो॥

मैं बालक बहिंयन को छोटो, छींको किहि बिधि पायो। ग्वाल बाल सब बैर परे हैं, बरबस मुख लपटायो॥

तू जननी मन की अति भोरी, इनके कहे पतिआयो। जिय तेरे कछु भेद उपजि है, जानि परायो जायो॥

यह लै अपनी लकुटि कमरिया, बहुतहिं नाच नचायो। ‘सूरदास’ तब बिहँसि जसोदा, लै उर कंठ लगायो॥

 

 

 

 

अर्थ-

सूरदास जी अपनी मधुर वाणी से श्री कृष्ण की सुंदर बाल लीला का वर्णन करते हुए कहते है कि – कन्हैया कहते है कि मैया, मैंने माखन नहीं खाया क्योंकि मुझे सुबह होते ही गायो की पीछे भेज देती हो।

 

 

 

 

चार पहर भटकने के बाद ही साँझ होने पर वापस आता हूँ। मैं तो छोटा सा बालक हूँ, मेरी बाहें भी छोटी है, मैं छींके तक नहीं पहुँच सकता हूँ? मेरे दोस्तों ने मेरे मुख में जबरदस्ती माखन लिपटा दिया है क्योंकि वह लोग मुझसे बैर रखते है।

 

 

 

 

मां तू इनके बातों  में आ गयी क्योंकि तू मन की बहुत ही भोली है। जो मुझे पराया समझकर मेरे ऊपर संदेह कर रही है। तेरे दिल में जरूर कोई भेद है।

 

 

 

 

ये ले अपनी लाठी और कंबल तूने मुझे बहुत ही नाच, नचाते हुए परेशान किया। श्री कृष्ण यही सब बातें मां यशोदा का मन मोह लेती है और वह हँसते हुए कन्हैया को अपनी गले से लगा लेती है।

 

 

 

 

 

7- मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायो। मोसो कहत मोल को लीन्हो, तोहि जसुमति कब जायो।

कहा कहौं यहि रिस के मारे, खेलन हौं नहि जात। पुनि पुनि कहत कौन है माता, कौन तिहारो तात।

गोरे नन्द जसोदा गोरी , तू कत श्याम शरीर। ताली दै दै हसत ग्वाल, सब सीख देत बलबीर।

तू मोहि को मारन सीखी , दाउहिं कबहु ना खीजै। मोहन को मुख रिस समेत लखि , जसुदा सुनि सुनि रीझै।

सुनहु कान्ह बलभद्र चबाई , जनमत ही कौ धूत। सूर, श्याम मोहि गोधन की सौं , मैं माता तू पूत।

 

 

 

 

अर्थ-

सूरदास जी अपनी प्रेम भरी वाणी में कहते है कि बाल कृष्ण मां यशोदा से बलराम जी की शिकायत करते हुए कहते है कि मैया दाऊ मुझे बहुत चिढ़ाते है।

 

 

 

 

मुझसे कहते है कि तुझे तो मोल लिया गया है। यशोदा मैया ने तुझे कब उत्पन्न किया। इसी क्रोध में मैं खेलने के लिए नहीं जाता हूँ। मैं क्या करू, वह सब बार-बार कहते है कि तेरी माता कौन है? तेरे पिता कौन है? तू सांवले रंग का कैसे हो गया।

 

 

 

 

जब कि नंद बाबा भी गोरे है और यशोदा मैया भी गोरी है। दाऊ जी की इसी बात पर सभी ग्वाल बाल मुझे चुटकी देकर नचाते है और हँसते है। तूने तो मुझको ही मारना सीखा है और दाऊ को कभी भी नहीं डांटती है।

 

 

 

 

सूरदास जी कहते है – श्याम के मुख से ऐसी बातें सुनकर यशोदा अपने मन में प्रसन्न होती है। वह हँसते हुए कहती है, कन्हैया सुनो! बलराम तो जन्म से ही धूर्त और चुगलखोर है। हे मोहन! मैं गायो की शपथ लेकर कहती हूँ कि मैं ही तुम्हारी माता हूँ और तुम मेरे पुत्र हो।

 

 

 

8- जसोदा हरि पालनैं झुलावै। हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ-जोइ कछु गावै॥

मेरे लाल कौं आउ निंदरिया, काहैं न आनि सुवावै। तू काहैं नहिं बेगहिं आवै, तोकौं कान्ह बुलावै॥

कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै। सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि, करि-करि सैन बतावै॥

इहिं अंतर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरैं गावै। जो सुख सूर अमर-मुनि दुरलभ, सो नँद-भामिनि पावै॥

 

 

 

 

अर्थ-

यशोदा जी श्री कृष्ण को पालने में झुलाते हुए कभी उन्हें पुचकारती है तो कभी उनका दुलार करती है और धीरे-धीरे पालने को झुला रही है। गाते हुए यशोदा जी कहती है कि अरे निंदिया तू मेरे लाल के पास आती क्यों नहीं है। तू क्यों नहीं आकर इसे सुला देती है। तू झटपट से जल्दी आ जा। तुझे श्याम बुला रहे है।

 

 

 

 

मोहन कभी अपनी पलके बंद कर लेते है तो कभी अपने होठ फड़काने लगते है। उन्हें सोते हुए जानकर यशोमति चुप हो जाती है तथा दूसरी गोपियों को भी चुप करा देती थी।

 

 

 

 

इसी बीच में श्याम अकुलाते हुए जाग जाते है। यशोदा जी फिर मधुर स्वर में गाने लगती है। सूरदास जी कहते है कि जो सुख देवताओ और मुनियो को भी दुर्लभ है वही सुख श्री कृष्ण के बाल रूप में नंद पत्नी यशोदा जी प्राप्त कर रही है।

 

 

 

 

9- अबिगत गति कछु कहति न आवै। ज्यों गूंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै॥

परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोष उपजावै। मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पावै॥

रूप रैख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन चकृत धावै। सब बिधि अगम बिचारहिं, तातों सूर सगुन लीला पद गावै॥

 

 

 

 

अर्थ-

निराकार ब्रह्म का चिंतन अनिर्वचनीय है, यह मन और वाणी का विषय नहीं है। ठीक उसी प्रकार है जैसे किसी गूंगे को मिठाई खिला दी जाय लेकिन पूछने पर वह उसका स्वाद नहीं बता सकता है।

 

 

 

 

मिठाई के स्वाद का रस तो उसका मन ही भली प्रकार से जान सकता है। निराकार ब्रह्म का न रूप है न गुण है इसलिए कवि वहां नहीं रहना चाहता है, निराकार ब्रह्म तो सभी तरह से अगम्य है, अतः सूरदास जी सगुण ब्रह्म श्री कृष्ण की लीला का गायन करना ही उचित समझते है।

 

 

 

 

10- चरन कमल बंदौ हरि राई। जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, आंधर कों सब कछु दरसाई॥

बहिरो सुनै, मूक पुनि बोलै, रंक चले सिर छत्र धराई। सूरदास स्वामी करुनामय, बार-बार बंदौं तेहि पाई॥

 

 

 

अर्थ-

सूरदास जी अपनी मधुर वाणी से कहते है कि जिसकी असीम कृपा होने पर सब कुछ संभव हो जाता है – यथा लंगड़ा व्यक्ति ऊँचे पर्वत को भी लांघ जाता है।

 

 

 

 

अंधा व्यक्ति सब कुछ देखने लगता है और बहरा व्यक्ति अच्छी प्रकार से सुनने लगता है। गूंगा व्यक्ति अच्छा वक्ता बन जाता है। गरीब व्यक्ति धनवान बन जाता है। ऐसे दयालु परमात्मा श्री कृष्ण के चरण वंदन की इच्छा किसे नहीं होगी। अर्थात सब लोग उनके चरणों की वंदना करना चाहेंगे।

 

 

 

 

11- कबहुँ बोलत तात खीझत जात माखन खात। अरुन लोचन भौंह टेढ़ी बार बार जंभात॥

 

अर्थ-

सूरदास जी अपने मधुर शब्दों में कहते है कि एक बार श्री कृष्ण जी माखन खाते-खाते रूठ गए और इतना रूठ गए कि उनके नेत्र रोते-रोते लाल हो गए, भौहे वक्र हो गई और श्री कृष्ण जी बार-बार जंभाई लेने लगे।

 

 

 

 

12- कबहुं रुनझुन चलत घुटुरुनि धूरि धूसर गात। कबहुं झुकि कै अलक खैंच नैन जल भरि जात॥

 

अर्थ-

सूरदास जी श्री कृष्ण की लीला का वर्णन करते हुए कहते है कि – श्री कृष्ण जी अपने घुटनो के बल चलते हुए उन्होंने अपने सारे शरीर को धूल-धूसरित कर लिया था और कभी वह अपने बालो को खींचने लगते है और अपने नैनो में आंसू भरकर अपनी तोतली बोली में तात ही बोलते है।

 

 

 

 

 

13- कबहुं तोतर बोल बोलत कबहुं बोलत तात। सूर हरि की निरखि सोभा निमिष तजत न मात॥

 

अर्थ-

सूरदास जी श्री कृष्ण की मधुर लीला का वर्णन करते हुए कहते है कि श्री कृष्ण कभी तोतली बोली में तात कहते हुए बोलते है माता यशोदा को उनकी इन छोटी-छोटी लीला में अद्भुत आनंद प्राप्त होने लगा। वह उनकी शोभा को देखकर उन्हें एकपल भी छोड़ने को तैयार नहीं होती है।

 

 

 

 

14- अरु हलधर सों भैया कहन लागे मोहन मैया मैया। नंद महर सों बाबा बाबा अरु हलधर सों भैया॥

 

 

अर्थ-

सूरदास जी कहते है कि भगवान बाल कृष्ण, अब मैया, बाबा और भैया कहने लगे है। सूरदास जी के अनुसार श्री कृष्ण जी अपने मुख से यशोदा को मैया, नंद बाबा को बाबा तथा बलराम को भैया कहकर पुकारने लगे है। यह देखकर यशोदा को जो सुख प्राप्त हो रहा है वह सुख देवताओ के लिए अति दुर्लभ है।

 

 

 

15- ऊंच चढि़ चढि़ कहति जशोदा लै लै नाम कन्हैया। दूरि खेलन जनि जाहु लाला रे! मारैगी काहू की गैया॥ 

 

अर्थ-

सूरदास जी प्रभु श्री कृष्ण की बाल अवस्था का वर्णन करते हुए कहते है कि – अब कन्हैया नटखट भी हो गए है। तभी तो यशोदा उचक-उचककर कहती है जब श्री कृष्ण दूर चले जाते है तब नाम लेकर पुकारते हुए कहती है कि कन्हैया तुझे दूर मत जाओ नहीं तो दूसरे की गाय तुम्हें मारेंगी।

 

 

 

16- गोपी ग्वाल करत कौतूहल घर घर बजति बधैया। सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कों चरननि की बलि जैया॥

 

अर्थ-

सूरदास के कथनानुसार – गोपी और ग्वाल, जब श्री कृष्ण की लीला को देखते है तो उन्हें अचरज होता है। श्री अभी छोटे है लेकिन लीला उनकी बहुत ही अनोखी है और इस अनोखी लीलाओ को देख-देखकर सभी लोग बधाईया दे रहे है। सूरदास कहते है – हे प्रभु! आपके इस रूप के चरणों की मैं बलिहारी जाता हूँ।

 

 

 

 

17- जो तुम सुनहु जसोदा गोरी। नंदनंदन मेरे मंदिर में आजु करन गए चोरी॥

 

 

अर्थ-

सूरदास जी श्री कृष्ण की बाल लीला को मधुर ढंग से बताते हुए कहते है – कि एक ग्वालिन यशोदा के पास श्री कृष्ण की शिकायत करने आयी है। वह कहती है – हे नंद भागिनी यशोदा! सुनो तो, नंद नंदन कन्हैया आज मेरे घर में चोरी कैसे हो गई।

 

 

 

18- हौं भइ जाइ अचानक ठाढ़ी कह्यो भवन में कोरी। रहे छपाइ सकुचि रंचक ह्वै भई सहज मति भोरी॥

 

अर्थ-

सूरदास जी के अनुसार श्री कृष्ण को माखन की चोरी करते देखकर वह ग्वालिन अपने भवन में जाकर छुपकर खड़ी हो गई। उसने अपने शरीर को सिकोड़ लिया और श्री कृष्ण को देखने लगी। जब उसने देखा कि माखन से भरी मटकी बिलकुल ही खाली हो गई है तो मुझे बहुत पछतावा हुआ।

 

 

 

 

19- मोहि भयो माखन पछितावो रीती देखि कमोरी। जब गहि बांह कुलाहल कीनी तब गहि चरन निहोरी॥

 

अर्थ-

सूरदास जी के शब्दों में – जब उस ग्वालिन ने आगे आकर कन्हैया की बांह को पकड़ा और शोर मचाने लगी। तब कन्हैया ने ग्वालिन के चरण पकड़कर मनुहार करने लगे। इतना ही नहीं उनकी आँखों में आंसू भी भर आये।

 

 

 

 

20- लागे लेन नैन जल भरि भरि तब मैं कानि न तोरी। सूरदास प्रभु देत दिनहिं दिन ऐसियै लरिक सलोरी॥

 

 

अर्थ-

सूरदास जी के शब्दों में – वह ग्वालिन यशोदा जी से कहने लगी – ऐसे में मुझे दया आ गई और मैंने उन्हें छोड़ दिया। सूरदास जी कहते है कि – इस प्रकार नित्य ही विभिन्न लीलाए करते हुए कन्हैया ने ग्वालिनों को सुख पहुँचाया।

 

 

 

 

 

21- हरि अपनैं आंगन कछु गावत। तनक तनक चरनन सों नाच मन हीं मनहिं रिझावत॥

 

 

अर्थ-

सूरदास जी ने अपने सुरीले पद के द्वारा श्री कृष्ण की बाल सुलभ स्थिति का वर्णन करते हुए कहते है कि श्री कृष्ण अपने घर के आंगन कुछ गा रहे है, जैसे छोटे बच्चे कुछ भी गाते है सुनने वाले आनंद से भर जाते है। कन्हैया अपने छोटे-छोटे पैरो से थिकरते हुए नाचते हुए नाचते है, और स्वयं ही अपने मन को रिझाते भी है।

 

 

 

22- बांह उठाइ कारी धौरी गैयनि टेरि बुलावत। कबहुंक बाबा नंद पुकारत कबहुंक घर में आवत॥

 

 

अर्थ-

सूरदास जी कृष्ण की बाल लीलाओ का अनोखा वर्णन करते हुए कहते है कि – मोहन कभी अपनी भुजाओ को उठाकर, काली, श्वेत गायो को बुलाते है। तो भी नंद बाबा को पुकारते है और कभी घर में आ जाते है।

 

 

 

23- माखन तनक आपनैं कर लै तनक बदन में नावत। कबहुं चितै प्रतिबिंब खंभ मैं लोनी लिए खवावत॥

 

 

अर्थ-

सूरदास के शब्दों में मनमोहनी सूरत वाले श्री कृष्ण अपने हाथो में माखन लेकर कभी अपने ही शरीर पर लगाने लगते है तो कभी अपने प्रतिबिंब को खंभे में देखकर माखन की लोनी बनाकर उसे खिलाने लगते है।

 

 

 

 

24- दुरि देखति जसुमति यह लीला हरष आनंद बढ़ावत। सूर स्याम के बाल चरित नित नितही देखत भावत॥

 

 

अर्थ-

सूरदास जी इस पद में जिस प्रकार से श्री कृष्ण जी के बाल चरित का सुंदर और रस भरा हुआ वर्णन किया है उसकी जितनी प्रसंसा की जाय वह बहुत ही कम है।

 

 

 

सूरदास जी के शब्दों में – श्री कृष्ण की इन सभी लीलाओ माता यशोदा छुपते हुए देखती है और मन में बहुत ही प्रसन्न होती है और श्री कृष्ण की नित्य ही नई-नई लीलाओ को देखकर हर्षाती है अथवा से प्रसन्नता से भर उठती है।

 

 

 

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