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Raidas Ke Pad Class 9 Pdf / रैदास के पद Pdf Download

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Raidas Ke Pad Class 9 Pdf / रैदास के पद कक्षा 9 pdf

 

 

 

 

Raidas Ke Pad Class 9 Pdf
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Raidas ke Pad class 9 in Hindi 

 

 

 

1- ब्राह्मण मत पूजिये, जो होवे गुणहीन। पूजिये चरण चंडाल के, जो होवे गुण प्रवीण।। 

 

 

अर्थ-

संत रविदास (रैदास) जी अपनी अमोल वाणी से कहते है कि – ऐसे ऊँचे कुल में जन्म लेने वालो को जो ब्राह्मण ही क्यों न हो, अगर वह गुणहीन है तो उसे पूजना नहीं चाहिए।

 

 

 

 

अगर गुणवान या गुण से सम्पन्न व्यक्ति की पूजा करनी चाहिए, चाहे वह नीची कुल में क्यों न पैदा हुआ हो। गुण की पूजा ही श्रेष्ठ है कुल या जाति की पूजा नहीं?

 

 

 

 

2- कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावे। तजि अभिमान मेटी आपा पर, पिपिलक हवे चुनि खावे।। 

 

 

अर्थ-

संत रैदास जी के अनमोल वाणी का अर्थ है कि जिस मनुष्य के भीतर अभिमान नहीं है,  वह अपने हर कार्य में सफल हो जाता है, भगवान की भक्ति मनुष्य को बड़े ही भाग्य से प्राप्त होती है।

 

 

 

 

जैसे घमंड रूपी विशाल हाथी शक्कर के दाने रूपी भगवान की भक्ति को नहीं ग्रहण कर सकता है लेकिन अभिमान से रहित चींटी उस भक्ति रूपी शक्कर के दानो को बड़ी ही आसानी से ग्रहण कर लेती है।

 

 

 

 

3- जा देखे घिन उपजे, नरक कुंड में वास। प्रेम भक्ति से उधरे, प्रकटत जन रैदास।। 

 

 

अर्थ-

रैदास जी कहते है – किसी से कभी घृणा नहीं करनी चाहिए क्योंकि सबके भीतर ही भगवान का निवास होता है और घृणा करने वाले को तो नरक में भी ठिकाना नहीं मिलता है।

 

 

 

 

जिस तरह लोग रैदास से घृणा करते हुए उसे नरक वासी कह रहे थे लेकिन ईश्वर की अनमोल भक्ति रूपी धन मिल जाने पर लोग उन्हें सिर आंखों पर बैठाने लगे, मानो मनुष्य के रूप में इनका दूसरी बार जन्म हुआ है।

 

 

 

 

4- मन चंगा तो कठौती में गंगा।।

 

 

अर्थ-

रैदास जी सब लोगो को अपने मन स्वच्छ रखने अर्थात पवित्र रखने के लिए कह रहे है जिसमे किसी के लिए भी प्रतिकूल विचार के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए और ऐसे ही पवित्र स्थान या कि मन पवित्र होने पर यदि कोई ईश्वर को बुलाये तो वह भी पवित्र मन वाले भक्त के पास चले आते है।

 

 

 

 

इसका सबसे सुंदर उदाहरण तो स्वयं रैदास जी है उनकी पुकार सुनकर भगवती गंगा को उस पात्र में आना पड़ा जिस पात्र में चर्म भिगाया जाता था।

 

 

 

5- करम बंधन में बंध रहियो, फल की न तज्जियो आस। कर्म मानुष का धर्म है, सत भाखे रविदास।। 

 

 

अर्थ-

संत रविदास जी कहते है कि – मनुष्य को सदैव ही अपने कर्म करने चाहिए और उसके फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए। अर्थात कर्म करते हुए फल की इच्छा को छोड़ देना चाहिए क्योंकि जब कर्म किया जायेगा तो उसका फल तो निकलेगा ही और अच्छे फल को प्राप्त कर लेना मनुष्य का सबसे बड़ा सैभाग्य होता है और धर्म की भांति समझकर ही कर्म करते रहना चाहिए।

 

 

 

 

6- मन ही मन ही धूप। मन ही सेऊं सहज स्वरुप।। 

 

 

अर्थ-

संत रविदास जी बहुत ही सुंदर, सुगम और अर्थ पूर्ण वाणी में सभी बातो को निचोड़कर उसे सरस भाषा में समझाते हुए जो सबसे ऊपर है उस मन को प्रकाशित करते हुए कहते है कि – मन ही सब कुछ है।

 

 

 

 

अगर आपके पास कुछ भी नहीं है तो आप अपने मन को भगवान के चरणों में लगाकर उनकी पूजा मन रूपी धूप सुगंधित द्रव से करते हुए सहज स्वरुप यानी भगवान के सुंदर स्वरुप का दर्शन अपने मन में ही कर सकते है और पवित्र मन ही धूप, दीप और मंदिर है जहां सहज स्वरुप में भगवान का दर्शन होता है।

 

 

 

 

7- कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव जब लगि एक न पेखा। वेद, कतेब, कुरान, पुरातन सहज एक न देखा।। 

 

 

अर्थ-

संत रैदास जी अपनी सुंदर और सहज वाणी से सबको एक ही भगवान के रूप में बताते है और कहते है कि अनेको नाम होते हुए भी वह परमेश्वर एक ही है और सभी महान ग्रंथ भी यथा वेद, पुरान, कुरान आदि ग्रंथ उसी ईश्वर की तरफ ध्यान दिलाते है और सदाचार सिखाते है।

 

 

 

 

8- हरि सा हीरा छाड़ि के, करे आन की आस। ते नर जमपुर जाहिगे, सत भाषै रविदास।। 

 

 

अर्थ-

संत रैदास जी की सुन्दर वाणी कहती है कि हीरे के मूल्य से भी अनमोल हरि को छोड़कर दूसरे की आस क्यों करना? सभी लोगो को हरि की भक्ति ही करनी चाहिए, अगर दूसरी वस्तुओ की तरफ ध्यान गया और हरि को भूल गए तो यमराज के दरबार में जाना ही पड़ेगा।

 

 

 

 

9- रविदास जनम के कारने, होत न कोउ नीच। नरक कु नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच।। 

 

 

अर्थ-

संत रविदास के सुंदर सुविचार से मनुष्य को प्रेरणा लेनी चाहिए – संत रैदास जी कहते है कि ऊँचे कुल में जन्म लेने के कारण कोई ऊँचा नहीं हो जाता है।

 

 

 

 

अगर आपके ओछे कर्म है अर्थात आप अच्छे कार्य नहीं करते है तो बुरे कार्य करने के कारण आपको ओछा ही कहा जायेगा या फिर नीच ही कहा जायेगा। ऊँचे कुल में जन्म लेने वाले अपने नीच कर्म के कीचड़ से नरक को भी नीच बना डालते है।

 

 

 

 

10- जाति जाति में जाति है, जो केतन के पात। रैदास मनुष ना जुड़ सके, जब तक जाति न जात।। 

 

 

अर्थ-

संत रैदास जी अपनी गूढ़ वाणी में जाति प्रथा के ऊपर प्रहार करते हुए कहते है कि मनुष्य इतनी जाति में विभक्त है कि यह जाति खत्म नहीं होती है लेकिन मनुष्य जाति जाति करते हुए ही चला जाता है।

 

 

 

 

उदाहरण स्वरुप केला के पेड़ के पत्तो को को निकालते-निकालते अंत में वह केला का पूरा तना ही खत्म हो जाता है। अतः कवि रैदास जी कहते है – मनुष्य आपस में तब तक नहीं जुड़ पाएंगे जब तक यह जाति प्रथा न जाएगी।

 

 

 

 

11- रैदास कहे जाके हदै, रहे रैन दिन राम। सो भगता भगवत सम, क्रोध न व्यापे काम।। 

 

 

अर्थ-

संत रविदास अपनी सुंदर रचना को अपनी मृदु वाणी में कहते है – कि जिसके हृदय में रात दिन राम का नाम रहता है, अर्थात जो रात-दिन राम के नाम को रटता रहता है वह भक्त स्वयं ही भगवान के समान हो जाता है और उस राम के नाम के प्रभाव से उसे कभी क्रोध विकार की भावना के वश में नहीं रहता है।

 

 

 

 

12- रविदास जनम के कारने, होत न कोउ नीच। नर कू नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच।।

 

 

अर्थ-

संत रैदास जी के अनुसार कोई मनुष्य अपने कर्म से ही ऊँचा या नीचा होता है। ऊँचे कुल में जन्म लेने से अगर कर्म नीच है तो वह ऊँचा कहने के योग्य नहीं है। मनुष्य को उसके कर्म नीच बना देते है अर्थात ओछे कर्म की कीचड़ ही मनुष्य को नीच बना देते है।

 

 

 

 

13- एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय। रहिमन मूलहि सीचिवों, फूलो, फले अघाय।। 

 

 

अर्थ-

संत रैदास जी एक समय में केवल एक ही कार्य के ऊपर ध्यान देने की तरफ इशारा करते हुए कहते है कि – मनुष्य को सिर्फ एक लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और एक लक्ष्य को पूरा करने के बाद ही आगे बढ़ना चाहिए, अगर एक साथ कई कार्य को हाथ में लिया जाय तो कोई भी कार्य सही ढंग से पूर्ण नहीं हो सकता है।

 

 

 

 

जैसे कि वृक्ष की जड़ में पानी डालने से उसकी शाखा और पत्तियां पूर्ण रूप से सुरक्षित रहेगी। अगर वृक्ष की सभी शाखाओ और पत्तियों को पानी से सिंचित किया जाय और जड़ को छोड़ दिया जाय तो सभी एक तरफ से सूख जायेंगे अतः एक को ही साधने का प्रयास करना चाहिए जिससे कि सभी सध जाते है।

 

 

 

 

14- रहिमन निज सम्पत्ति बिना, कोउ न विपति सहाय। बिनु पानी ज्यों जलज को, नहीं रवि सके बचाय।। 

 

 

अर्थ-

संत रविदास जी, तालाब के पानी, कमल और सूर्य का उदाहरण देकर कहते है कि – विपत्ति के समय उसकी कोई सहायता नहीं करता, अपने पास की सम्पत्ति ही सहायक बनती है।

 

 

 

 

अगर सम्पत्ति नहीं है तो कोई भी सहायता नहीं करता है – जैसे तालाब का पानी जो उसमे खिले हुए कमल की सम्पदा होती है। तब सूर्य की रोशनी की सहायता मिलने से वह खिला रहता है।

 

 

 

 

लेकिन वही जल रूपी संपदा खत्म हो जाने पर जिस सूर्य की रोशनी की सहायता से कमल खिला रहता था। वह सूर्य भी कमल की सहायता करने में समर्थ नहीं हो पाता है।

 

 

 

15 – अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी। प्रभु जी तुम चंदन हम पानी, जाकी अँग-अँग बास समानी।।

प्रभु जी तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा। प्रभु जी तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।।

प्रभु जी तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहिं मिलत सुहागा। प्रभु जी तुम तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा।।

 

 

 

अर्थ-

संत रैदास जी (रविदास जी) एक उच्चकोटि के भगवान के परम भक्त थे और इस पद में उन्होंने बड़े ही सुंदर और कोमल स्वर में सरल भाषा का प्रयोग किया है।

 

 

 

 

उनके पद का अर्थ एक सरल स्वभाव लिए हुए है जो आम जन मानस की समझ में अच्छी तरह से आ जाता है। उन्होंने अपने इस पद की प्रथम पंक्ति में ही राम के नाम की महिमा का गुणगान किया है और कहते है कि – जैसे इस प्रकृति में सभी वस्तुए एक दूसरे से जुडी हुई है वैसे ही भक्त और भगवान का भी जुड़ाव है और रैदास जी के अनुसार – जिसे एक बार राम नाम की रट लग जाए तो वह कभी नहीं छूट सकती है जैसे चंदन और पानी का साथ कभी नहीं छूटता है।

 

 

 

 

चंदन का लेप बनाने में पानी की आवश्यकता होती है, पानी डालकर घिसने से चंदन का लेप तैयार होता है, उसे भक्त अपने शरीर पर लेप करता है, शरीर पर चंदन लगाने से उसकी सुगंध फ़ैल जाती है और सुगंधित सुगंध रूपी भक्ति में भक्त लीन हो जाता है। भगवान रूपी चंदन से भक्ति रूपी पानी का मेल होते ही ऐसी सुगंध फ़ैल जाती है कि सारा संसार ही सुगंधित हो जाता है।

 

 

 

 

सूरदास जी आगे कहते है – प्रभु जी आप तो आनंद के घने वन है और मैं उस आनंद घन वन का मोर हूँ जो आपके भक्ति रूपी आनंद को पा करके प्रफुल्लित होकर हमारा मन रूपी मोर नाचने लगता है और जैसे चन्द्रमा को चकोर पक्षी रात दिन देखते रहता है। वैसे ही मैं भी आपकी भक्ति की इच्छा लिए रात्रि और दिवस आपकी कृपा पाने हेतु आपकी तरफ ही देखता रहता हूँ।

 

 

 

 

रैदास जी के अनुसार – जैसे दीपक में बाती जलती हुई अपने चारो तरफ प्रकाश फैलाती है वैसे ही भगवान की भक्ति रूपी बाती से अपने हृदय रूपी दीपकं को जलाकर प्रकाशित करता है और उसके (भक्ति) के ज्ञान जो प्रकाश का स्वरुप है, उससे सभी लोगो को ज्ञान के रूप में प्रकाश को फैलाता है।

 

 

 

 

रैदास जी के अनुसार एक भक्त ईश्वर की भक्ति के बिना अधूरा है जैसे मोती बिना धागे के अधूरा रहता है ईश्वर रूपी मोती को भक्त रूपी धागे में पिरोने उस धागे की सार्थकता बढ़ जाती है या भक्त रूपी धागे का जीवन ईश्वर रूपी मोती के साथ रहने में सफल हो जाता है तथा जैसे सोने में सुहागा के मिल जाने से सोने के साथ सुहागा की ख्याति बढ़ जाती है उसी प्रकार भगवान अपने भक्त की ख्याति को बढ़ा देते है और अंत में रैदास जी कहते है – हे प्रभु जी, आप तो मेरे स्वामी है और मैं आपका दास हूँ और आपकी कृपा पाने की अभिलाषा करता हूँ।

 

 

 

 

16 – ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै । गरीब निवाजु गुसाईआ मेरा माथै छत्रु धरै ॥

जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै । नीचउ ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै ॥
नामदेव कबीरू तिलोचनु सधना सैनु तरै ।कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरिजीउ ते सभै सरै ॥
अर्थ-
रैदास जी के अनुसार – भक्तो के ऊपर इतनी कृपा करने वाला दूसरा कोई नहीं है। भगवान की कृपा से ही गरीब व्यक्ति धनवान हो जाता है। अर्थात भक्ति रूपी धन नहीं रहने से ही व्यक्ति बहुत गरीब रहता है।
लेकिन भगवान अपनी कृपा करते हुए जब किसी भी मनुष्य को  रूपी धन प्रदान कर देते है तो वह संसार का सबसे धनवान व्यक्ति हो जाता है और भगवान के रूप में उसके सिर के ऊपर राजा लोगो से भी ऊँचा छत्र रहता है।
जिससे भक्त सदा ही प्रसन्न रहता है। रैदास के ऊपर जब प्रभु की कृपा हुई तो वह अपने को बहुत ही भाग्यवान व्यक्ति मानते थे जो पहले खुद को अभागा मान रहे थे।
उनके अनुसार भगवान रैदास जैसे निम्न व्यक्ति भी रूपी छत्र प्राप्त करने के बाद बहुत ही धनवान हो गए थे। वह कहते थे कि मेरा गोविन्द नीच को भी ऊंचाई पर बैठा देता है और वह किसी से नहीं डरता है।
जैसे उनकी कृपा से नाम देव, कबीर जैसा जुलाहा, सधना (सदन) जैसा कसाई, सैन जैसा नाइ और त्रिलोचन जैसे सामान्य व्यक्ति भी बहुत ख्याति प्राप्त कर सके। रैदास जी के अनुसार उनका गोविन्द सबको एक समान देखता है और उसके पास ऊंच-नीच का कोई भाव नहीं रहता वह सबको समभाव से ही देखता है और अंत में कहते है कि सभी संतो! सुन लो, सबके भीतर वही समाया हुआ है अर्थात सब लोग उससे ही भरे हुए है।

 

 

 

 

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