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Kurma Puran Gita Press Pdf / कूर्म पुराण पीडीऍफ़
एक समय जब देवताओ को अपनी शक्ति और श्री का गर्व हो गया था और उसी गर्व के वशीभूत होकर देवताओ ने महर्षि दुर्वासा का अपमान कर दिया। महर्षि दुर्वासा का स्वभाव बहुत ही क्रोधपूर्ण था जो देवताओ द्वारा किए गए अपमान से तीव्र हो गया तथा उन्होंने देवताओ को शक्ति हीन और श्री हीन होने का शाप दे दिया।
दुर्वासा ऋषि के शाप से देवता बलहीन तथा श्रीहीन हो गए और उनकी शक्ति कम हो गयी और इसका लाभ दैत्यराज बलि ने उठाया और उसने इंद्र के ऊपर आक्रमण करके उन्हें परास्त कर दिया तथा तीनो लोक का राजा बन बैठा। तदुपरांत चारो तरफ अधर्म बढ़ने लगा यह देखकर देवता विचलित होकर विष्णु से सहायता की प्रार्थना किया।
पृथ्वी प्रलय काल के प्रभाव से कुछ समय पहले ही स्वस्थ हुई थी तथा सत्ययुग का पुनः उदय हुआ था और बहुत से अनमोल रत्न समुद्र की गहराई में छुपे हुए थे। दैत्य या देवता अकेले ही समुद्र को नहीं मथ सकते थे। इसलिए भगवान विष्णु ने देवताओ को दानवो के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने के लिए कहा जिससे बहुमूल्य रत्न प्राप्त किया जा सके।
तथा विष्णु जी ने यह भी बताया था कि समुद्र मंथन से अमृत भी निकलेगा और अमृतपान से देवताओ की शक्ति बढ़ जाएगी तथा उनका खोया हुआ राज सिंहासन पुनः प्राप्त होगा।
समुद्र को मथने के लिए एक विशाल मथानी की आवश्यकता थी। भगवान विष्णु ने अपने चक्र की सहायता से मंदरा पर्वत को विभक्त करके मथानी बनाने के लिए सहायता किया। मंदरा पर्वत रूपी मथानी को घुमाने के लिए रस्सी कहां से प्राप्त हो? यह यक्ष प्रश्न था। लेकिन नारायण ने यहां भी देवता और दानव पक्ष की सहायता करने के लिए बासुकी नाग को ही प्रदान किया।
बासुकी नाग का मुख दैत्यों की तरफ तथा पूंछ देवताओ की तरफ थी। समुद्र मंथन करते समय मंदरा पर्वत रसातल को जा रहा था। इससे मथने में समस्या हो रही थी क्योंकि समुद्र में कोई ठोस भूमि नहीं थी। मंदरा पर्वत के डूबने से समुद्र मंथन का कार्य अधूरा ही रह जाता।
देवता और दानवो की सहायता करने के लिए भगवान विष्णु ने कच्छप रूप धारण करके मंदरा पर्वत का पूरा भार अपनी पीठ पर उठा लिया। कच्छप की पीठ बहुत कठोर होती है अतः मंदरा पर्वत उसपर स्थायी रूप से घूमने लगा जिससे समुद्र मंथन का कार्य शुरू हो गया।
एक-एक करके चौदह रत्नो की प्राप्ति हुई जिनमे हलाहल, कामधेनु, लक्ष्मी माता, ऐरावत हाथी, उच्चैः श्रवा नामक घोडा, कौस्तुभ मणि, रम्भा अप्सरा, चन्द्रमा, वारुणी देवी, पांचजन्य, पारिजात तथा धन्वन्तरि वैद्य और चौदहवां रत्न अमृत था।
उसे प्राप्त करने के लिए देवता और दानवो के मध्य युद्ध होने लगा। तब विष्णु जी ने मोहिनी रूप धारण करके अमृत को देवताओ को और वारुणी दानवो को देकर उस युद्ध को समाप्त कराया तथा शृष्टि का उद्धार किया।
महाप्रलय के पश्चात जो बहुमूल्य औषधि तथा रत्न जो समुद्र की गहराई में चले गए थे उन्हें भी प्राप्त करने का उद्देश्य था जिससे शृष्टि का कल्याण संभव हो सके। इसके अलावा बुराई को भी अच्छाई वाले कार्य में किस तरह से उपयोग किया जा सकता है यह दिखाना भी इस अवतार की विशेषता थी।

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