Advertisements

Best 50 + Kabir Ke Dohe in Hindi Pdf | कबीर के दोहे हिन्दी अर्थ सहित Pdf

नमस्कार मित्रों, इस पोस्ट में हम आपको Kabir Ke Dohe in Hindi Pdf देने जा रहे हैं। आप एकदम नीचे की लिंक से Kabir Ke Dohe in Hindi Pdf Download कर सकते हैं और आप यहां से Best 51 + हिंदी निबंध पुस्तक Pdf Download कर सकते हैं।

 

 

 

 

 

 

Kabir Ke Dohe in Hindi Pdf Free Download

 

 

 

Kabir Ke Dohe in Hindi Pdf

 

 

 

पुस्तक का नाम  Kabir Ke Dohe in Hindi Pdf
पुस्तक के लेखक  कबीर दास 
भाषा  हिंदी 
श्रेणी  धार्मिक, बुक 
फॉर्मेट  Pdf
साइज  1 Mb
पृष्ठ  17

 

 

 

Kabir Ke Dohe in Hindi Pdf

 

 

 

काल करै सो आज कर, आज करे सो अब। पल में परलय होयगी, बहुरि करेगा कब।। 

 

 

अर्थ-

कबीर दास जी मनुष्य को चेतावनी देते हुए कहते है – कि जो काम कल करना है, उसे आज ही कर लो टाल मटोल करना ठीक नहीं है और जो काम आज करना है उसे तुरंत यानी अभी कर डालो क्योंकि समय कम है और काल रूप में पलभर में कभी भी प्रलय हो सकती है तो वापस अपने काम कब करोगे।

 

 

 

14- ज्यों तिल माही तेल है, ज्यों चकमक में आग। तेरा साईं तुझमे ही है, जाग सके तो जाग।। 

 

 

अर्थ-

कबीर दास जी तिल और चकमक पत्थर का उदाहरण देकर कहते है कि जैसे तिल से तेल छुपा हुआ है और चकमक (एक प्रकार का पत्थर जिससे आग पैदा होती है) में आग छुपी हुई है। उसी प्रकार से ईश्वर हमारे अंदर ही छुपा हुआ है और जागते हुए अर्थात मोहमाया से दूर रहते हुए उसे ढूंढ सको तो ढूंढ लो।

 

 

 

15- जहां दया तहां धर्म है, जहां लोभ वहां पाप। जहां क्रोध तहां काल है, जहां क्षमा तहां आप।।  

 

 

 

अर्थ-

कबीर दास जी मनुष्य को दया धर्म से जुड़ने के लिए इशारा कर रहे है और क्रोध लोभ को छोड़ने के लिए कहते है, कि जहां दया होती है वही धर्म निवास करता है लेकिन लोभ अथवा लालच जहां रहता है।

 

 

 

 

तो मनुष्य लोभ के कारण ही पाप करने पर मजबूर हो जाता है अतः लोभ नहीं करना चाहिए, क्रोध तो काल का दूसरा स्वरुप है। क्रोध के वश में होने पर मनुष्य किसी के जीवन का अंत कर सकता है।

 

 

 

 

अतः लोभ और क्रोध से सदा ही बचना चाहिए और क्षमा तो मनुष्यो का भूषण होता है। क्षमाशील व्यक्ति तो भगवान का रूप है अतः जहां क्षमा है वहां भगवान का वास रहता है।

 

 

 

 

17- जल में बसे कमोदनी, चंदा बसे अकाश। जो है जा को भावना, सो ताही के पास।। 

 

 

अर्थ-

कबीर दास जी एक सुंदर उदाहरण देकर कहते है कि – जल में तो कमल खिलता है लेकिन चन्द्रमा अकाश में रहता है। लेकिन किसी का आत्मीय संबंध अगर किसी के साथ बना रहता है तो उससे दूर रहते हुए भी, आत्मीय जन को अपने पास ही समझता है, ठीक उसी प्रकार जैसे कमल और चन्द्रमा के बीच में बहुत दूरी होने पर भी जब चन्द्रमा का प्रतिबिंब जल के अंदर पड़ता है तो ऐसा लगता है कि कमल और चन्द्रमा दोनों एकदम पास में है। व्यक्ति अगर भगवान से लगन लगाता है तो भगवान सदैव ही उसके पास रहते है।

 

 

 

 

 

18- जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तरवार का, पड़ा रहा दो म्यान।

 

 

 

अर्थ-

साधु अगर ज्ञानशील है तो उससे उसकी जाति नहीं पूछनी चाहिए चाहे वह किसी भी जाति का क्यूं न हो? उससे तो ज्ञान की बाते करके ज्ञानार्जन ही करना चाहिए, उसी तरह से ज्ञान रूपी तलवार का ही मोल करना चाहिए और जाति रूपी म्यान को पड़ी रहने देना चाहिए। यही कबीर दास जी के इस दोहा का छुपा हुआ अर्थ है।

 

 

 

 

19- जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय। यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।

 

 

अर्थ-

कबीर दास जी कहते है। अगर मनुष्य का मन शीतल, ‘कपट, छल से रहित’ जो हृदय में परोपकार की भावना रखता है। उसका इस जग में कोई बैरी नहीं हो सकता है और कबीर दास जी भगवान से प्रार्थना करते है कि अगर आपने कृपा कर दिया तो सभी लोगो की दया संभव है।

 

 

 

 

20- ते दिन गए अकारथ ही, संगत भई न संग। प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिना भगवंत।। 

 

 

 

अर्थ-

कबीर दास जी के अनुसार – अब तक का सारा समय ही व्यर्थ चला गया क्योंकि न तो सज्जनो की और ना कभी अच्छे मनुष्यो का संग ही किया, अगर मनुष्य के जीवन में प्रेम नहीं है तो उसका जीवन एकदम पशु के समान है क्योंकि पशुओ को सिर्फ खाने और सोने का ही काम रहता है। उसी प्रकार से मनुष्य जीवन मिलने पर अगर कोई ईश्वर की भक्ति नहीं करता है तो उसे भगवान की प्राप्ति कैसे संभव है।

 

 

 

 

21- तीरथ गए से एक फल, संत मिले फल चार। सतगुरु मिले अनेक फल, कहे कबीर बिचार।। 

 

 

 

अर्थ-

कबीर जी विचार कर कहते है कि तीरथ करने एक फल (पुण्य) प्राप्त होता है, लेकिन संत के मिलने चार पुण्य का फल प्राप्त होता है। लेकिन सतगुरु के मिलने अनेको पुण्य के फल प्राप्त हो जाते है। अतः सतगुरु की शरण अवश्य ही ग्रहण करनी चाहिए।

 

 

 

22- तन को जोगी सब करै, मन को विरला कोय। सहजे सब विधि पाइये, जो मन जोगी होय।। 

 

 

 

अर्थ-

कबीर दास अपने मन को योगी बनाने के लिए कहते है – न कि तन की, जैसे कई कई लोग जोगी का वस्त्र धारण तो कर लेते है, लेकिन उनका मन संसार में ही उलझा रहता है। अर्थात वह माया से परे नहीं हो पाते है। जो अपने मन को इस संसार की माया से दूर रखता है। वही असली जोगी है चाहे उसका वेश कैसा भी हो। जोगी होने की सहल विधि यही है कि अपने मन को भगवान की भक्ति में ही लगाए रखना चाहिए।

 

 

 

 

23- प्रेम न बारी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय। राजा प्रजा जो ही रुचे, शीश दे ही ले जाय।। 

 

 

 

अर्थ-

कबीर दास जी के अनुसार- प्रेम खेतो में नहीं उपजता है, और यह बाजार में भी नहीं मिलता है। जिसे प्रेम चाहिए तो उसे अपना शीश- काम, क्रोध, इच्छा, भय के रूप में त्याग करते हुए कटाना होगा।

 

 

 

 

24- जिन घर साधु न पूजिए, घर की सेवा नाहि। ते घर मरघट जानिए, भूत बसे तिन माहि।। 

 

 

 

अर्थ-

कबीर दास जी के अनुसार- उस घर में भूत-प्रेत रूपी मनुष्य रहते है, जहां साधु-संतो की पूजा नहीं होती है और साधु-संतो को नहीं पूजने से वह घर मरघट के समान हो जाता है। अतः साधु-संतो की पूजा अवश्य होनी चाहिए।

 

 

 

 

 

25- साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय। सार-सार को गहि रहे, थोथा देहि उड़ाय।। 

 

 

 

अर्थ-

कबीर दास जी के अनुसार- साधु या कि सज्जन पुरुष को एक सूप की तरह से ही रहना चाहिए जैसे सूप के अंदर अनाज डालने पर वह थोथा अर्थात निरर्थक वस्तु को बाहर फेक देता है और सार तत्व अर्थात अच्छी वस्तुओ को अपने अंदर ही रख लेता है।

 

 

 

 

चलती चक्की देखकर, दिया कबीरा रोये। दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।।

 

 

अर्थ-

जीवन के रूप की चक्की जो आकाश और पृथ्वी के रूप दो पाटो में चल रही है और यह मनुष्य रूपी जीव उन दो पाटो के बीच में फंसा हुआ पिस रहा है और वह बचता भी नहीं है। जैसे गेहूं को पीसने के लिए चक्की में डाला जाता है तो एक भी गेहूं का दाना साबुत नहीं बचता है यही देखकर कबीर दास जी को रोना आ गया।

 

 

 

 

मालिन आवत देखि के, कलियन कहे पुकार। फूले, फूले चुन लिए, कलि हमारी बार।। 

 

 

अर्थ-

कबीर दास जी के गूढ़ शब्द का बहुत सुंदर अर्थ होता है। वह कह रहे है – मालिन अर्थात काल समय को आते हुए देखकर या जानकर कलियन अर्थात जीवात्मा कह रही है।

 

 

 

 

आज जिन फूल रूपी जीव को मालिन रूपी काल तोड़ ले गया तो कल हमे (जीव को) भी जब हम फूल बन जायेंगे तो हमे फिर मालिन रूपी काल तोड़ ले जायेगा जैसे ही आज जवान है कल उसे बूढ़ा होना है फिर तो मालिन रूपी काल तोड़ ले जायेगा इसी तरह से कल एकदिन सबकी बारी आएगी।

 

 

 

 

पाछे दिन पाछे गए, हरि से किया न हेत। अब पछताए होत क्या, चिड़िया चुग गई खेत।।

 

 

 

अर्थ-

कबीर दास जी के अनुसार- समय बीतता जा रहा है या कि समय पीछे होता जा रहा है। मनुष्य अपने लिए ही व्यस्त रहा उसने न तो ईश्वर से प्रेम करने का समय दिया और कोई भी भलाई का कार्य भी नहीं किया, जब अंत समय आया तब पछताने से क्या फायदा जब समय रूपी चिड़िया ने जीवन रूपी खेत को चुग लिया।

 

 

 

 

27- जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहि। सब अधियारा मिट गया, दीपक देखा माहि।। 

 

 

 

अर्थ-

कबीर दास जी के कथनानुसार- मैं अर्थात अहंकार – जब मनुष्य के अंदर मैं रूपी अहंकार रहता है तो उसे कदापि हरि (भगवान) की प्राप्ति नहीं हो सकती है। लेकिन इस ‘मैं’ को खत्म करने के लिए गुरु रूपी दीपक का प्रकाश चाहिए। जब गुरु के रूप में दीपक का प्रकाश मिलता है तो ‘मैं’ का अहंकार और अज्ञान का अंधकार दोनों के समाप्त होते ही हरि मनुष्य के हृदय में आ जाते है।

 

 

 

 

 

28- नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय। मीन सदा जल में रहे, धोये वास न जाय।। 

 

 

 

अर्थ-

कबीर दास जी के अनुसार- मनुष्य चाहे जितना भी अपने शरीर को नहा धो कर साफ करे लेकिन उसका हृदय साफ नहीं है। अर्थात दूसरे के प्रति सदैव ही दुर्भावना से ग्रसित रहता है तो उसका शरीर उसी प्रकार से मैला होता है जैसे सदैव जल में रहने वाली मछली का गंदा वास कभी खत्म नहीं होता अर्थात अपने हृदय साफ रखने का प्रयास करना चाहिए।

 

 

 

 

 

29- प्रेम पियाला जो पिए, शीश दक्षिणा देय। लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय।।

 

 

अर्थ-

कबीर दास जी के कथनानुसार- जो व्यक्ति प्रेम का प्याला पीना चाहता है या कि भगवान की भक्ति रूपी प्रेम को पाना चाहता है। उसे अपना शीश अर्थात क्रोध, लोभ, मोह, मद, अज्ञान का त्याग करना होगा। लेकिन जो व्यक्ति इन सबको क्रोध, लोभ, मोह, मद, अज्ञान रूपी शीश को नहीं दे सकता है या उनका त्याग नहीं कर सकता है तो उसकी प्रेम पाने की चाहत कैसे संभव होगी?

 

 

 

 

30- कबीरा सोइ पीर है, जाने पर पीर। जो पर पीर न जान ही, सो कामे पीर में पीर।। 

 

 

 

अर्थ-

कबीर दास जी के अनुसार- वह इंसान ही संत पुरुष अर्थात पीर है जो दूसरो की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझकर उसे छुटकारा दिलाता है। लेकिन जो दूसरो की पीड़ा को नहीं समझता है और पीर अर्थात संत पुरुष होने का दिखावा करता है। उसके पीर होने में तो समाज को पीड़ा अवश्य होती है।

 

 

 

 

31- कविराते नर अंध है, गुरु को कहते और। हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर।। 

 

 

 

अर्थ-

कबीर दास जी के अनुसार- जो लोग गुरु की महिमा को नहीं समझ पाते वह लोग अंधे और मुर्ख होते है क्योंकि अगर हरि रूठ जाए तो गुरु के पास ठिकाना मिल सकता है लेकिन गुरु रूठ जाये तो मनुष्य को कही भी ठिकाना नहीं मिलता और भगवान भी उसे ठिकाना नहीं देते है।

 

 

 

 

 

32- कबीर सूता क्या करे, जागी न जपे मुरारी। एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पांव पसारी।।

 

 

 

अर्थ-

कबीर दास के अनुसार- मनुष्य को भगवान की भक्ति और भजन करना चाहिए। उसे आलस रूपी, मोह रूपी निद्रा में सोना नहीं चाहिए। उसे ज्ञान के रूप में सदैव ही जागते हुए हरि की भक्ति और जप करना चाहिए, नहीं तो एक दिन ऐसा आने वाला है कि लम्बे पांव फैलाकर खूब नींद लेना पड़ेगा अर्थात मौत का बुलावा जिस दिन आ गया उसी समय लम्बे पांव फैलाकर सोना पड़ेगा।

 

 

 

 

 

33- नहि शीतल है चन्द्रमा, हिम नहीं शीतल होय। कबीर शीतल संत जन, नाम सनेही होय।। 

 

 

 

अर्थ-

कबीर दास जी के अनुसार- चन्द्रमा शीतल है, हिम या वर्फ भी शीतल है लेकिन उनकी संत की शीतलता से कभी समानता नहीं हो सकती है क्योंकि संत जन अर्थात सज्जन लोग तो शीतलता के असीमित भंडार होते है तथा सभी स्नेह करने वाले होते है। अतः उनका स्वभाव चन्द्रमा और वर्फ से कही अधिक शीतल होता है।

 

 

 

 

34- पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।। 

 

 

 

अर्थ-

कबीर दास जी के अनुसार- कोई चाहे कितना भी पढ़-लिख ले, लाखों किताबो को पढ़ डाले और पूरा संसार भी लाखो किताबो को पढ़ते-पढ़ते मर गया लेकिन कोई भी पंडित या कि विद्वान नहीं बन पाया। अगर कोई ढाई अक्षर प्रेम का पढ़ लेता है तो उसे ही सबसे बड़ा विद्वान समझना चाहिए।

 

 

 

 

 

35- राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय। जो सुख साधु संग में, सो बैकुंठ न होय।। 

 

 

 

अर्थ-

कबीर दास जी के अनुसार- जब मृत्यु निकट आयी अर्थात राम का बुलावा आ गया तो कबीर दास रो पड़े, उन्हें इस कारण से रोना आया कि अब यहां से साधु की संगति में जो सुख मिल रहा था वह अब छूट जायेगा क्योंकि यह साधु की संगति का सुख तो बैकुंठ में प्राप्त नहीं होगा।

 

 

 

 

 

35- शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान। तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन।।  

 

 

 

अर्थ-

जो व्यक्ति शीलवन्त होता है, उसका यह गुण ही सब रत्नो की खान अर्थात भंडार है और यह बहुत ही अनमोल रतन है और शीलता में ही तीनो लोक की सम्पदा समाई हुई है और जिसके पास शीलता का गुण है उसे हर प्रकार की सम्पदा, सुख, वैभव प्राप्त हो जाता है।

 

 

 

 

 

36- साईं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाय। मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय।। 

 

 

 

 

अर्थ-

कबीर दास जी के अनुसार- मनुष्य को भगवान से प्रार्थना करना चाहिए कि हे ईश्वर ! मुझे इतना ही धन सम्पत्ति दीजिए कि जिससे हमारा और हमारे परिवार का भरण पोषण अच्छी प्रकार हो सके और मुझे भूखा न रहना पड़े साथ ही मेरे घर जो कोई भी साधु पुरुष आये तो वह भी तृप्त होकर जाए अर्थात वह भी हमारे घर से भूखा न जाने पावे।

 

 

 

 

 

37- माखी गुड़ में गड़ी रहे, पंख रहे लिपटाय। हाथ मेल और सर धुने, लालच बुरी बलाय।।

 

 

 

अर्थ-

कबीर दास जी लालच के ऊपर बड़ा ही सुंदर उदाहरण देते हुए कहा है। गुड़ के ऊपर बैठकर पहले मक्खी गुड़ को खाती है। मीठा गुड़ खाने से उसके अंदर लालच की भावना ज्यादा ही बढ़ गई फिर उसने अपने पंखो को फैलाकर गुड़ खाने में व्यस्त हो गई।

 

 

 

 

पंख फैलाने के कारण ही वह गुड़ से चिपक गई और जब उड़ने का प्रयास किया तो उसमे और ही चिपकने लगी। हाथ मलकर और सिर धुनकर पछताने लगी कि मैंने अगर ज्यादा लालच नहीं किया होता तो मुझे इसमें फंसना नहीं पड़ता। ठीक यही बात मनुष्य के ऊपर भी लागू होती है। इसका अंत सार यही है कि ज्यादा लालच करना बुरी बलाय होता है।

 

 

 

 

 

38- ज्ञान रतन का जतन कर, माटी का संसार। हाय कबीरा फिर गया, फीका है संसार।।

 

 

 

 

अर्थ-

ज्ञान रूपी रतन के ऊपर प्रकाश डालते हुए कबीर दास जी कहते है कि – मनुष्य को ज्ञान रूपी रतन को संभालने, समझने का प्रयास अवश्य ही करना चाहिए क्योंकि यह संसार तो फीका है अर्थात ज्ञान से विहीन है यहां तो अज्ञानता का अंधकार फैला हुआ है।

 

 

 

 

जैसे माटी देखने में माटी का अस्तित्व रहता है। लेकिन पानी के साथ आने पर उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है उसी प्रकार यह मानव रूपी माटी है जो ईश्वर के प्रेम रूपी जल में मिल जाने से ही इस जीवन की सार्थकता है। अन्यथा फिर तो आने जाने का यह क्रम ज्ञान के अभाव में हमेशा ही चलता रहेगा।

 

 

 

 

 

39- कुटिल वचन सबसे बुरा, जासे होत न चार। साधु वचन जल रूप है, बरसे अमृत धार।। 

 

 

 

अर्थ-

कबीर दास जी साधु के वचन पर प्रकाश डालते हुए कहते है कि साधु का वचन तो जल स्वरुप शीतल होता है उससे अमृत की धारा ही प्रवाहित होती है। जबकि कुटिल अर्थात कटु वचन तो सबसे बुरा होता है। उस कटु वचन से अपने साथ ही दूसरे का भी भला नहीं हो सकता है। अतः कटु वचन का त्याग करना चाहिए ,

 

 

 

 

ऊँचे कुल का जनमियां, करनी ऊँची न होय। सुवर्ण कलश सुरा भरा, साधु निंदा होय।।

 

 

 

अर्थ- 

सुवर्ण कलश का उदाहरण देकर कबीर दास जी कहते है कि – आदमी की पहचान उसके कर्म से होती है न कि उसके ऊँचे कुल में जन्म लेने से। ऊँचे कुल में जन्म लेने से कोई ऊँचा नहीं बन जाता है अगर मनुष्य के कर्म ओछे है तो वह ऊँचे कुल में जन्म के बाद भी ओछा ही कहा जायेगा। जैसे सुवर्ण के पात्र में सुरा अर्थात मदिरा भर देने से उसकी महत्ता खत्म हो जाती है। तथा उसकी निंदा होती है।

 

 

 

 

41- रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय। हीरा जन्म अमोल सा, कौड़ी बदले जाय।। ( Kabir Ke Dohe in Hindi Pdf )

 

 

 

अर्थ-

मनुष्य के जीवन के ऊपर प्रकाश डालते हुए कबीर दास जी कहते है कि – तुमने अपना जीवन रात को सोने में गंवा दिया और अपने दिन को खाने में गंवा दिया, तुम्हे यह अनमोल तन केवल सोने के लिए और खाने के लिए नहीं मिला है। जिसने तुम्हे यहां पठाया है अर्थात परमेश्वर! कुछ समय उसके चिंतन में भी बिताओ जिससे तुम्हारा कुछ भला हो जाय। नहीं तो अनमोल हीरा सा जीवन कौड़ियों के मोल ही व्यर्थ में चला जायेगा।

 

 

 

 

 

42- कामी, क्रोधी, लालची इनसे भक्ति न होय। भक्ति करे कोई सूरमा जाति वरन कुल खोय।। 

 

 

 

अर्थ-

यहां कबीर दास जी ने भक्ति के ऊपर प्रकाश डाला है – वह कहते है कि – भक्ति सब कोई नहीं कर सकता है कामी, क्रोधी, लालची तो कभी भी भगवान की भक्ति नहीं कर सकते है। भक्ति वही सूरमा व्यक्ति अर्थात दृढ इच्छा शक्ति वाला व्यक्ति जो अपने वर्ण जाति कुल को छोड़ सकता है वही भक्ति करता है।

 

 

 

 

कबीर के दोहे हिन्दी अर्थ सहित Pdf Download

 

 

Note- इस वेबसाइट पर दिये गए किसी भी पीडीएफ बुक, पीडीएफ फ़ाइल से इस वेबसाइट के मालिक का कोई संबंध नहीं है और ना ही इसे हमारे सर्वर पर अपलोड किया गया है।

 

 

 

यह मात्र पाठको की सहायता के लिये इंटरनेट पर मौजूद ओपन सोर्स से लिया गया है। अगर किसी को इस वेबसाइट पर दिये गए किसी भी Pdf Books से कोई भी परेशानी हो तो हमें newsbyabhi247@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं, हम तुरंत ही उस पोस्ट को अपनी वेबसाइट से हटा देंगे।

 

 

 

 

 

 

 

Download Here

 

 

 

यहां से रहीम के दोहे क्लास 9 Pdf Download करें।

यहां से रैदास के पद Pdf Download करें।

कबीर के दोहे और उनके अर्थ pdf

 

 

 

Sampurna Devkanta Santati Novel Pdf Hindi यहां से डाउनलोड करे। Download Now
चेतन भगत ने इंडियन गर्ल इन हिंदी PDF Download Download Now
टू स्टेट्स novel pdf download Download Now

 

 

 

मित्रों यह पोस्ट Kabir Ke Dohe in Hindi Pdf आपको कैसी लगी, कमेंट बॉक्स में जरूर बतायें और Kabir Ke Dohe Pdf की तरह की पोस्ट के लिये इस ब्लॉग को सब्सक्राइब जरूर करें और इसे शेयर भी करें।

 

 

 

1 thought on “Best 50 + Kabir Ke Dohe in Hindi Pdf | कबीर के दोहे हिन्दी अर्थ सहित Pdf”

  1. Jay shree krishna ji
    Jay shree ram ji

    Reply

Leave a Comment