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Dhyan tatha iski Paddhati Pdf
श्रीचरणों में यह पत्रपुष्प रूपी अलुधहि“सांदरें समर्पित है। उन्हीं की प्रेरणा से यह प्रारंभ हश्ना और उन्हीं ने इसे पूरे कराया अतः उन्हीं को यह निवेद्ति किया जाना उचित है ।
हे इंश्वर ! अज्ञानी जनों फो इन्द्रियों के भोग के वाशवान् पदार्थों पर जैसी गाढ़ी प्रीति रहती है उसी प्रकारें की प्रीति हमारी तुक में हो और तेरा स्मरण करते हुए: हमारे हृदय से वह खुख कभी दूर न होवे ?” हम देखते हे इन्द्रियमोग के पदार्थों से वढ़कर है और किसी बस्तु को न जानने वाले लोग इन पदार्थों पर-घर्न घान्य, कपड़े लत्ते, पुत्र कलन्न, वंधु वांधव, ओर अन्यान्य सामपियों पर कैसी दृढ प्रीति फरते हैं; इनचस्तुओंके प्रति उनकी कैसी घोर आसक्ति रहती है।
इसीलिये इस परिभाषा में वे भक्त चद्दपिराज कहते हैं. “ चैसी ही प्रबल आसक्ति, वेसी ही दढ संलभता केवल तेरे प्रति मुझे रहे ” ऐसी ही भीति जब इश्वर के प्रति की जाती दै तव चह “ भक्ति ” कद्दाती है! भक्ति किसी वस्तुका संद्दार नहीं करती वरन भक्ति हमें यह सिखाती है कि हमे जो २ शक्तियां दी गई हैँ उनमें खे कोई भी निरर्थक नहीं है बल्कि उन्हीं के अन्तगत हमारी मुक्ति का स्वासाविक साग है।
भक्ति न तो फिसी वस्तु का निषेध ही करती है, न वह हमें प्रकृति के विरुद्ध ही चलाती है। भक्ति तो केवल हमारी प्रकृति को ऊँची उठाती है और उसे अधिक शक्तिशाली प्रेरणा देती है। झंद्रेय विषयोपर हमारी कैसी स्वाभाविक प्रीति हुआ करती है।
ऐसी प्रीति किये विना हम रह ही नहीं। सकते क्योकि ये विषय-ये पदाथे हमे इतने सत्य प्रतीत होते हैं। साधारणतः हमे इनसे उच्चतर पदार्थों में कोई यथा- थे ही नहीं दिखाई देती; पर जब मलुप्य इन इन्द्रियों के परे-इन्द्रियों के संसार के उस पार-किसी यथार्थ बस्तु को देख पाता है तव वांचनीय यही है कि उस प्रीति को- उस आसक्ति को बनाये तो रखे, पर उस विषय के पदार्थीलि दृदाकर उस ‘इन्द्रियों के परे वस्तु अथीत् परमेश्वर में लगा देवे |
और जिस प्रकार का प्रेम झंद्रियों के भोग्य पदार्थों पर था उसी प्रकार का प्रेम सग- चबान् में लग जाने पर उसका नाम “ भक्ति” द्वो जाता है। सन्त भीरामानुजाचार्य के मतानुसार उस उत्कड अम की भाप्ति के लिये नीचे लिखी साधनाये हैं प्रथम साधना है ‘ विवेक ! यह विशेषतः पाश्यात्यों की दृष्टि में विचित्र बात है। श्री रामाुजाचार्य के मत से इसका अथ है “ आहारमीमाँसा ” या “खाया खाद्य विचार ” | हमारे शरीर और मन की शक्तियो की निर्माण करने वाली समग्र संजीवनी शक्तियां हमारे भोजन के’ भीतर ही रहती हैं।
अभी जो कुछ मैं हूं सो सब दी इसके पूर्व मैंने जो खाया उस भोजन खामन्नी में दी था। वहद्द सव खाद्य पदार्थों से दी भेरे शरीरमं आया उसमे संचित ‘ रहा और नया रूप धारण किया पर वस्तुतः मेरे शरीर मे और मेरे मन में मेरे खाये हुए अन्न से मिन्न ओर कोई चस्तु नहीं है।
जैसे भोतिक खष्टि में हम शक्ति और जड़ पदार्थ पांत हैं और यह शक्ति और जड़ पदार्थ दम में मन और शरीर वन जाते हैं। ठीक उसी दठरह यथार्थ में देह और मनमे, ओर हमारे खाये हुए अन्न अं, केवल आकार या रूप का अंतर है। ऐसा दोते हुए, जब हम अपने भोजन के जड़कणो द्वारा द्वी अपने विचार थन्त्र का निमोण करते हैं ओर जब हम उन्ही जड़करणों के अंतर्निह्ठित सूक्ष्म शक्तियों द्वारा विचार का निर्माण करते हैं ।
यह सहज ही सिद्ध होता है कि इस विचार आऔर विचार यंत्र दोनों पर ही हमारे खाये हुए अन्न का प्रभाव पड़ेगा। विशेष प्रकार के आहार हमारे मन में विशेष प्रकार के विकार उत्पन्न करते हैं यह हम प्रति दिन” रुपए रूप से देखते है। और अन्य प्रकार के आद्दारों का शरीर पर अन्य प्रकार का परिणाम होता है और अन्त में वह मनपर भी वहुत असर पहुँचाता है ।
इससे हम वहुत बड़ा पाठ यह सीखते हैं कि हम जिन दुखों को भोग रहे उनका वहुतेरा अंश हमे हमारे खाये हुए भोजन द्वारा ही प्राप्त होता हे अधिक मात्रा में और छुप्पाच्य पदार्थ खालेने के उपरांत आप देखते हैं कि मन को कावू में रखना कितना कठिन हो जाता है।
Dhyan tatha iski Paddhati
ध्यान तथा इसकी पद्धतियाँ ‘Meditation and its Method’ का हिंदी संस्करण है। यह बहुत ही अच्छी बुक है। श्रीरामकृष्ण ने स्वामी विवेकानंद को ध्यानसिद्ध कहा था।
ध्यान तथा इसकी पद्धतियां बुक में स्वामी विवेकानंद आध्यात्मिक अनुभूतियों का वर्णन है। साथ ही उन्होंने ध्यानमग्नता द्वारा सुप्त आध्यात्मिक शक्ति को जागृत करके दैनिक व्यावहारिक जीवन में भी दिव्यता की अभिव्यक्ति पर अत्यधिक बल दिया है।
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