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Ashtavakra Gita Pdf Hindi
अष्टावक्र गीता के रचनाकार कहोड़ ऋषि के पुत्र तथा उद्यालक ऋषि के नवासे थे। जब वह अपनी माता के गर्भ में थे तभी उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया था। इनके पिता रात्रि के समय में भी वेद पाठ करते रहते थे। यही वेद वाणी सुनकर गर्भ में ही अष्टावक्र को ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होंने गर्भ के अंदर से ही कहा इतना पठन पाठन करने की आवश्यकता नहीं है।
आप खुद अपने को जानने का प्रयास करो। गर्भस्थ बालक की यह बात सुनकर ऋषि कहोड़ अपमानित महसूस करने लगे उन्होंने गर्भस्थ बालक को श्राप दे दिया कि तुम्हारे शरीर के अंग आठ जगह से वक्र होंगे। समय के साथ ही उस बालक का जन्म हुआ जो आगे चलकर अष्टावक्र के नाम से प्रसिद्ध हुए और महाराज जनक को ज्ञान दिया। वही ज्ञान अष्टावक्र गीता के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
अष्टावक्र गीता
अष्टावक्र गीता अध्यात्म विज्ञान का एक बेजोड़ और बहुमूल्य ग्रंथ है। इस ग्रंथ में ज्ञान प्राप्ति, मुक्ति कैसे होगी तथा वैराग्य के प्राप्ति का पूर्ण रूप से समाधान किया गया है जो अष्टावक्र गीता कहलाता है। इसमें केवल एक ही पथ प्रदर्शित किया गया है और वह केवल ज्ञान का मार्ग है – स्वयं को जानना, ज्ञानदर्शी होना।
अष्टावक्र गीता में स्वयं को जानने के लिए इतनी सरल व्याख्या की गयी है जो सर्व साधारण को भी बोधगम्य होती है। अष्टावक्र जिस समय अपने एक खास उद्देश्य की पूर्ति के लिए महाराज जनक की सभा में गए तो उनके वक्र शरीर को देखकर वहां सभी उपस्थित लोग हंसने लगे।
सबको हँसता देखकर अष्टावक्र भी हंसने लगे। महाराज जनक ने अष्टावक्र से पूछा – सबके हंसने का तात्पर्य समझ में आ रहा है लेकिन आप क्यों हंस रहे है? अष्टावक्र ने उत्तर दिया – महाराज! मैं इसलिए हंस रहा हूँ कि चमड़ी की परख करने वालो (मूर्खो) की सभा में सत्य का निर्णय किया जा रहा है।
वहां उपस्थित सभी विद्वान अष्टावक्र के इस उत्तर से हतप्रभ हो गए। महाराज जनक ने पूछा – इसका क्या अर्थ है? अष्टावक्र ने कहा – बहुत सीधी और सरल बात है इनको हमारा वक्र शरीर ही दिखाई पड़ता है इस शरीर के अंदर छुपे हुए ज्ञान को देखने में असमर्थ है।
राजन! मंदिर के वक्र होने से कही आकाश वक्र होता है? आकाश तो निर्विकार होता है। यह जो शरीर के अंदर बसा हुआ है इसकी तरफ देखो हमारे वक्र शरीर को देखने से कोई लाभ नहीं है। अष्टावक्र के मुख से ऐसी ज्ञान पूर्ण वाणी सुनकर सभी विद्वान हतप्रभ और लज्जित रह गए।
इस पुस्तक के बारे में—–
राजदरबार भव्य और वैभवशाली था। सामने स्वर्ण जणित सिंहासन पर राजा जनक आसीन थे। उनके मुकुट से मणि माणिक्य की रश्मियां विकीर्ण हो रही थी। उनके आभामय चेहरे पर मंद मंद मुस्कान खिली हुई थी। नेत्र असीम ज्ञान से आलोकित थे।
विराट ललाट के मध्य में चंदन का टीका तृतीय नेत्र की भांती चमक रहा था। राजा जनक के अप्रतिम व्यक्तित्व से कहोड़ चमत्कृत हो गए। उन्होंने हाथ जोड़कर उनका अभिनंदन किया। राजा जनक सस्मित बोले – स्वागत है ब्राह्मणराज आसन ग्रहण करे।
कहोड़ ने चारो तरफ देखा। राजा जनक के सम्मुख दोनों तरफ राजदरबारी अनेक ब्राह्मण व विद्वान पंक्तिबद्ध बैठे थे। कहोड़ रिक्त स्थान पर बैठ गए। उन्हें विश्वास था कि जब वह यहां से विदा होंगे तो उनके पास राजा जनक का दिया हुआ पर्याप्त धन होगा और वह शिशु का संस्कार करने में समर्थ होंगे।
राजा जनक ने पूछा – कहिए ब्राह्मणराज आपके आने का प्रयोजन क्या है? कहोड़ ने उत्तर दिया राजन मैं ऋषि उद्दालक का शिष्य एवं दामाद कहोड़ हूँ। मेरी पत्नी प्रसवासन्न है। वह किसी भी समय शिशु को जन्म दे सकती है। जन्मोपरांत शिशु का संस्कार करना अपरिहार्य है। किन्तु धनाभाववश मैं संस्कार निभाने में असमर्थ हूँ। इस पुस्तक को पूरा पढ़ने के लिए नीचे दी गयी लिंक पर क्लिक करे।
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